रसड़ा बलिया का इतिहास आज बताने वाले हैं राजभरों का जो अपने आप में एक अलग पहचान बनाई हुई है
रसड़ा तहसील मुख्यालय से लगभग सात किलोमीटर दक्षिण तमसा, नदी के किनारे मुड़ेरा गांव स्थित, लखनेश्वर डीह किला पौराणिक है। बलिया प्राचीन समय में कोसल साम्राज्य का एक हिस्सा था
यह ऐतिहासिक किला अपने गर्भ में अनेक रहस्य भी छिपाए हुए है। कहा जाता है कि यह एक भर भारशिव महिपाल राजा का किला था। जो गजेटियर में दर्ज है
जिसके नीचे अभी भी अकूत खनिज सिक्के, आभूषण सम्पदा दबी पड़ी है। किले के पास अभी कुछ दिनों पूर्व शिवलिंगों का समूह भी खेतों की जोताई में प्राप्त हुआ है। यदा-कदा यहां आए दिन पुरातन सिक्के आदि भी मिलते रहते हैं। इसके भूगर्भ में अभी भी अकूत खनिज संपदा दबी पड़ी है। पुरातत्व विभाग को इस भूमि की सर्वेक्षण कर इसकी खोदाई करनी चाहिए ताकि इस किले की भूमि में दबी संपदा पर से पर्दा उठ सके। यहां पर भरों का राज्य था
कौन हैं राजभर और क्यों किया जाता है इस किले पर राजभरों का दावा, तो आइए जानते हैं
डाक्टर ब्रह़मानंद सिंह ने अपनी पुस्तक बलिया का प्रारंभिक इतिहास में राजभर जातियों का उल्लेख करते हुए, लिखते हैं । कि गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद बलिया में। जिन शक्तियों का उदय हुआ उनमें भर और चेरु प्रमुख थे। इनको बलिया का मूल निवासी भी बताया जाता है। डाक्टर सिंह अपनी पुस्तक में उल्लेख करते हैं राहुल सांस्कत्यान के अनुसार भर जाति सिंधु सभ्यता की जननी थी। भरों के बहुत बड़े पैमाने पर व्यापार भी चलते थे।
और आर्यो के आने से पहले भरो ने बलिया क्षेत्र में मौजूद थे। जबकि बुकानन ने भर जाति को बिहार के पूर्णिया में बसे हुए भार जाति के समकक्ष माना है। यही नहीं काशी प्रसाद जयसवाल ने अपनी पुस्तक 'अंधेर युगीन भारत' में भारशिव भर वंश को क्षत्रिय माना है। पांचवी सदी में गुप्त राजवंश का सूर्यअस्त होने के बाद भर जाति के लोगों ने अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली। और सदियों राज करते रहे । वाराणसी व गाजीपुर के गंगा तटीय क्षेत्र में इनके बनाए भवनों के अनेक खंडहर आज भी दिखाई देते हैं। भरों के प्रभुत्व से बलिया भी अछूता नहीं रहा ।और इसमें मुख्यत रसड़ा और बांसडी का क्षेत्र इनके प्रभाव में रहा वहीं ए हसन व जेरी दास द्वारा संपादित ' पीपुल आफ इंडिया उत्तर प्रदेश वॉल्यूम xLllपार्ट वन' के अंतिम शासक को जौनपुर के सुल्तान इ्ब्राहिम शाह शर्की ने मारा था। एहशन के अनुसार उत्तर मध्यकाल में राजभरों के बहुत बड़े पैमाने पर कबिले स्थापित थे। पूर्वि उत्तर प्रदेश में इनके छोटे'छोटे राज्य थे जिनको मुगल व राजपूतों ने विस्थापित कर इनके राज्यों पर कब्जा कर लिया।
वहीं डाक्टर ब्रह़मानंद सिंह के अनुसार भर जनजातियों पर पश्चिम से आए राजपूतों ने मुगलों के साथ मिलकर धावा बोल दिया। और उन्हें अपने अधीन कर छिन्न'भिन्न कर दिया।
डाक्टर सिंह कहते हैं कि गजेटियर में भी राजभर जातियों और उनकी जागिरों भरताज का उल्लेख मिलता है। शायद इतिहास के इन्हीं तर्कों के आधार पर राजभर इस किले को राजभरों का किला बताते हैं। लखनेस्वर डिह के गर्भ में मिलते शिवलिंग व मूर्तियों सिक्के ,का रहस्य क्या है। यह तो लखनेश्वर डीह गर्म में समाहित है। इन रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए पुरातत्व विभाग के निर्देशन में विस्तृखुदाई की जरूरत है। ताकि और भरो के साक्ष्य मिल सकें। भरो का इतिहास सदा सदा के लिए अमर हो जाएगा
पुरातात्विक दृष्टिकोण से समृद्ध लखनेश्वर डीह का इलाका पर्यटन के मामले में भी अग्रणी भूमिका अदा कर सकता है ।पर अफसोस इस बात का है कि कोई ध्यान नहीं दे रहा है।लखनेश्वरडीह का किला पुराने पहलुओं को समेटे हुए है।
विडंबना यह है कि इस तरह के ऐतिहासिक स्थलों को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए अब तक कोई भी पहल नहीं हुई।
यह क्षेत्र पुरातत्व विभाग व भूगर्भ शास्त्रियों के लिए भी शोध का विषय है। इस क्षेत्र के पर्यटन केंद्र के रूप में अगर विकसित कर दिया जाए। तो इससे एक तरफ क्षेत्रीय विकास को बल मिलेगा, वहीं राजस्व की भी वृद्धि होगी। इस क्षेत्र को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की घोषणा कई राजनेताओं, पर्यटन मंत्री, विधायक कर चुके है, लेकिन उनकी ये घोषणाएं मूर्त रूप नहीं ले सकीं। सच तो यह है कि सारी घोषणाएं हवा-हवाई ही साबित हुई। किसी भी जनप्रतिनिधि ने इस पहलू को गंभीरता से नहीं लिया। आज जरूरत है कि सरकार इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाए ताकि लखनेश्वर डीह पर्यटन के रूप में विकसित हो सके।
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