मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव भर


मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव भर शिव के परम भक्त थे। वे स्वयं शिव स्वरूप थे, इसीलिए उनकी गणना एकादश रुद्रों में की गई एवं महापुराणेंा में उन्हें वीरभद्र के नाम से जाना गया। महाराज वीरसेन भारशिव भर शिव लिंग धारण करते थे। वे परमेश्वर शिव का अपमान नहीं सह सकते थे। जहां भी यज्ञादि शुभ कार्यों में महेश्वर शिव की अवहेलना की गई, वहां महाराज वीरसेन भारशिव ने अथवा उनके सेवकों ने उस यज्ञ का विध्वंश किया। प्रजापति दक्ष के यज्ञ का विध्वंश किया जाना इसका प्रमाण है।
उनकी इस प्रवृत्ति के कारण वैष्णव भारशिवों से गहरी शत्रुता रखने लगे, और भारशिवों के विनाश की योजना बनाने लगे। वैष्णवों को जब भी अवसर मिला छल कपट के बल पर भारशिवों को नेस्तनाबूंद करने का प्रयास करते रहे। इतना ही नहीं अपितु धरती का भार हटाने अर्थात धरती से भर भारशिवों का विनाश करने के लिए विष्णु का आवाहन करते रहे।
 
 शिवस्वरूप भगवान वीरसेन भारशिव चाहते थे कि सम्पूर्ण भारतीय समाज महेश्वर शिव को आत्मसात करे, क्योंकि शिव ही एकमात्र ऐसे आराध्य हैं जो सभी प्रकार के भेद भावों से परे हैं। उनके दरबार में अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, मित्र-षत्रु, विज्ञ-अल्पज्ञ, राजा-प्रजा, सुर-असुर आदि का भेदभाव नहीं किया जाता। सब समान रूप से उनके दरबार में प्रवेश पाते हैं। महेश्वर शिव परम सन्यासी हैं। दूसरे देवों के समान विलासी नहीं हैं। आशुतोष हैं, सहज-आराध्य, सहज-सुलभ हैं।


 भगवान वीरसेन भारशिव ने समानता के प्रतीक महादेव शिव को भारत भूमि के हर क्ष्ेात्र प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया। हमारे देश के हर गांव में हर हर महादेव के दर्शन हो जायेंगे। शायद ही कोई ऐसा गांव मिले जहां शिवालय न हो। यह भगवान वीरसेन भारशिव की ही अनुकम्पा है।

         भगवान वीरसेन भारशिव ने नागौद-नचना में शिवालय की स्थापना की एवं भारशिव कुलदेव के प्रतीक स्वरूप शिव मुखलिंग की स्थापना की। जबलपुर जिले के भेड़ाघाट-पंचवटी में भी


 चतुर्मुख शिव लिंग की प्राण प्रतिष्ठा कराई। भेड़ाघाट का चतुर्मुख शिवलिंग विश्व में अपने प्रकार का अकेला मुखलिंग है। यह अद्वितीय हैं इसी प्रकार भगवान वीरसेन भारषिव ने भारतवर्ष में बहुत से शिवालयों का निर्माण कराया
                          जिन्हें बाद में वैष्णवों ने अपना बना लिया या यों कहें कि बलात कब्जा कर भारषिवों के नामपट्ट हटाकर अपने नाम पट्ट लगवा लिए तथा अपने उदर पोषण का जरिया बना लिया।
         
बहराइच के सोमनाथ मन्दिर का निर्माण भी संभवतः भगवान वीरसेन भारशिव ने ही कराया था। श्री मनीष मलहोत्रा का लेख बहराइच में सोमनाथ का दूसरा मन्दिर जो कि दैनिक जागरण-लखनऊ संस्करण 13 जून 1998 में छपा था एवं राजभर मार्तण्ड के जुलाई, अगस्त, सितम्बर 1999 ई. अंक में साभार प्रकाशित किया गया था-में जो बहराइच जिला मुख्यालय से 28 किलोमीटर दूर शिवदत्त मार्ग पर लगभग साढ़े तीन किलोमीटर दूर स्थित आत्मदाहपुर -वर्तमान अहमदापुर ग्राम के ठीक सामने सड़क की दूसरी छोर पर एक शिव लिंग भगवान शंकर की मान्यताओं से सम्बंधित प्राप्त मूर्तियों का जो काल निर्धारण किया है
वह काल मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव के शासन काल से पूरी तरह मेल खाता है। अतएव, यह मन्दिर महाराज वीरसेन भारशिव का ही निर्माण कराया हुआ था, इसमें शंका की गुंजाइश नहीं है।
भारतीय धार्मिक वांग्मय का सूक्ष्म अध्ययन करने के बाद यह ज्ञात होता है कि गणेष्वर वीरभद्र ही एक मात्र ऐसे महा-योद्धा हैं जो कि ब्रह्माण्ड की समस्त महा-षक्तियों को पराजित करने के बाद भी अजेय रहे। गणेष्वर वीरभद्र के समान पराक्रमी इस भू-मण्डल में न कोई हुआ है और न होगा। विष्णु का सुदर्षन चक्र अमोघ अस्त्र कहा जाता है किन्तु उस अस्त्र को भी अपने उदर में ग्रहणकर लेने वाले गणेष्वर वीरभद्र भारषिव वंष के मूल हैं।
              षिवपुराणमें लिखा है-‘‘गणैस्समेतः किलतैर्महात्मा स वीरभद्रो हरवेषभूषणः। सहस्त्रबाहुर्भुजगाधिपाढयेा ययौ रथस्य प्रबलोतिभीकरः।। (अर्थात-वीरभद्र भी षिव जी जैसा वेष धारण किए हुए थे। वे सहस्त्र भुजा वाले ,भुजंग लपेटे हुए, महाप्रबल षत्रुओं को भी भयभीत करने वाले थे ,वे (वीरभद्र) रथारूढ़ होकर चले।) षिवपुराण का यह ष्लोक भारषिवों के नामकरण की उस अवधारणा की पुष्टि करता है जिसमें कहा गया है कि षिव को धारण करने के कारण भारषिव कहा गया। भार का एक अर्थ धारण करना भी होता है। महाराज वीरभद्र का षिवस्वरूप होना षिव-रूप धारण करना भारषिव नाम जाति का उत्पत्ति का कारण है।वाकाटकों के ताम्रपत्र-‘‘अंसभारसन्निवेषित षिवलिंगोद्वहनषिवसुपरितुष्ट समुत्पादित राजवंषानाम्पराक्रम आधिगतःभागीरथीः अमल-जलः मूद्र्धाभिषिक्तानाम् दषाष्वमेधः अवभृथ स्नानाम् भारषिवानाम्’’की पुष्टि भी होती है। (अंस का अर्थ कंधा,अंष का अर्थ रूप और भार का अर्थ धारण करना।) वीरभद्र बाममार्गी देव हैं-जो कि षैव-मार्ग के कट्टर प्रचारक हैं । अछूत कहे जाने वाले लोगों, जंगल में रहने वाले लोगों,अत्यंत गरीब दीन हीन जनों सबको षिव की अर्चना सहज-सुलभ कराने वाले महाराज वीरभद्र ही हैं।सामाजिक ,धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक ,बौद्धिक इन सभी क्ष्ेात्रों में समता मूलक समाज के संवाहक मूलदेव महाराज वीरभद्र ही हैं। सामाजिक ,धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, बौद्धिक आदि क्ष्ेात्रों में भेदभाव के पोषक विष्णु ने जहां भी अवसर मिला पूंजीवादी, सामन्ती व्यवस्था का ही पोषण किया है, इसके ठीक विपरीत महाराज वीरभद्र सामाजिक समानता के लिये संघर्षरत रहे।
              यहां मैं बामन पुराण एवं षिवपुराण के अंषों का ही उल्लेख करूंगा जिसमें गणेष्वर वीरभद्र के महान पराक्रम का वर्णन किया गया है। दक्ष का यज्ञ षिव-मार्ग(कल्याणकारी मार्ग)पर कुठाराघात की सोची समझी योजना थी। षिव एवं षक्ति ही जगत के जनक एवं जननी हैं। लिंग पूजा का यही आधार है। लिंग एवं योनि अर्थात पिण्डी एवं जिलहरी की पूजा कर हम ंपिता एवं माता के प्रति प्रति-दिन कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। लिंग एवं योनि के संयोग के बिना प्राणी जगत का सृजन ही संभव नहीं है। जगत को चलाने के लिए यही सत्य है ,यही सुन्दर है और यही षिव है। लिंग एवं योनि अर्थात जनक-जननी की पूजा में भी विष्णु कोे नंगापन दिखता है इसीलिए उसने लोगों को लिंग पूजा से विमुख करने और अपनी पूजा करवाने के लिए जब तब घोर युद्ध करवाकर जन-समूह का विनाष करवाया। दक्ष यज्ञ में षिव को आमंत्रित न किया जाय इसमें विष्णु की मौन स्वीकृति थी अन्यथा ऐसा हो ही नहीं सकता कि ब्रह्मा एवं विष्णु की बात दक्ष प्रजापति टाल दे ।
               भगवती सती ने षिव का अपमान सहन नहीं किया और यज्ञ में समाहित होकर अपनी देह की आहुति दे दी। इसका अर्थ यह है कि षिव का मार्ग अपनाये बिना यज्ञादि के ढकोसले बेकार हैं।भगवती सती के देह त्यागते ही हजारों षिवगणों ने भी अपनी अपनी देह विसर्जित कर दी। कुछ षिवगणों ने षिव को इसकी सूचना दी और षिव ने वीरभद्र को प्रकट कर दक्ष यज्ञ विध्वंष करने एवं यज्ञ में षामिल होने वाले सभी वर्ग के लोगों को नष्ट करने का आदेष दिया ।
                              वीरभद्र ने यज्ञ स्थल पर पहुंच कर धर्म, सूर्य, अग्नि, वायु, यम, निर्ऋति, वरुण, कुबेर, नौ ग्रह, आठ वसु, इन्द्र, बारह आदित्य, विष्वदेवा, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व, पन्नग, गुह्यक, लोकपाल, यक्ष, किंपुरुष, भूत, खग, चक्रवर, सूर्यवंषी, चंद्रवंषी नृपगण आदि,सभी को पराजित किया, ऋषिगण भाग खड़े हुए,।यज्ञ मृग बनकर भागा उसका षीष काटा, पूषा के दांत तोड़े,सरस्वती तथा अदिति की नांक छेद डाली अर्थात सभी वर्ग के लोग पराजित हुए। विष्णु ने सबकी रक्षा के उद्देष्य से वीरभद्र से युद्ध किया। क्ष्ेात्रपाल ने विष्णु के चक्र का ग्रास किया जिसे बाद में विष्णु ने उगलवाया। क्रोध से वषीभूत विष्णु ने चक्र ग्रहणकर वीरभद्र को मारना चाहा जिसे वीरभद्र ने स्तम्भित कर दिया।
       क्रोध रक्तेक्षणः श्रीमान् पुनरुत्थाय स प्रभुः ।
       प्रहर्तु चक्रमुद्यम्य     ह्यतिष्ठतपुरुषर्षभः ।।
       तस्य चक्रं महारौद्रं कालादित्यसमअभम्।
       व्यष्ट यदीनात्मा वीरभद्रष्षिवः प्रभुः ।।(षिवपुराण)
                 यहां वीरभद्रष्षिवः प्रभुः भी ध्यान देने योग्य है। वीरभद्र ने विष्णु को भी निष्चल कर दिया जो कि यज्ञ मंत्र से स्तम्भन मुक्त हुए। विष्णु ने जान लिया की वीरभद्र को पराजित करना संभव नहंी है तब अपने सहयोगियों सहित पलायन कर गये ।वीरभद्र ने दक्ष का सिर काटकर अग्नि कुण्ड में डाल दिया।
               
 वीरभद्र की वीरता के लिए षिवपुराण का यह ष्लोक ही पर्याप्त है-‘‘अनायासेना हन्वैतान्वीरभद्रस्ततोग्निना। ज्वालयामास सक्रोधोदीप्ताग्निष्षलभानिव।।’’अर्थात वीरभद्र ने उन सबको उस जलती हुई अग्नि में षलभ के समान भस्म कर डाला।(विस्तृत कथा बामनपुराण एवं षिवपुराण में पढ़ी जा सकती है।) वीरभद्र ने दक्ष आदि सभी को भस्म करके तीनों लोकों को परिपूर्ण करने के लिए घोर अट्टहास किया। उस समय वीरभद्र विजयश्री से आवृत हुए और उनके ऊपर पुष्प वृष्टि हाने लगी।सभी षिवगण प्रसन्न हुए।वीरभद्र ने अंधकार का नाष किया। वीरभद्र के सफल कार्य से परमेष्वर षिव परम सन्तुष्ट हुए और वीरभद्र को गणेष्वर उपाधि से विभूषित किया। भारत देष में विरला ही कोई गांव होगा जहां षिवालय या षिवधाम न हौ यह सब महाराज वीरभद्र के प्रयास का परिणाम है।
             यह कथा बहुत सी षंकाओं को जन्म देती है। विष्णु जिन्हें कि भारतीय जन मानस अन्य वैष्णवी अवतारों का स्रोत मानता है इतने कमजोर क्यों? विष्णु के सुदर्षन चक्र के वार से किसी का बच पाना संभव नहीं फिर वीरभद्र ने कैसे उदरस्थ कर लिया ?और बाद में चक्र एवं विष्णु को भी स्तम्भित कर दिया। वीरभद्र को अजेय मानकर विष्णु ने रणक्ष्ेात्र से पलायन क्यों किया? समाधान आप स्वयं खोजिए।
              अजेय महायोद्धा गणेष्वर महाराज वीरभद्र आज भी खरवार वंषी राजभरों के कुलदेवता हैं। इससे महाराज वीरभद्र और भारषिव वंष (राजभरों ) का अभेदत्व सहज ही समझा जा सकता है।  
भारशिव राजभर क्षत्रिय भारत का एक प्राचीन राजवंश यह लोग प्राचीन काल मे शिवलिंग को कंधा पर रखा करते थे। नाग कुल के नाग राजायों ने अपने धार्मिक अनुष्ठान के समय मे शिवलिंग को अपने कन्धो पर उठाकर शिव को सम्मानित करते थे उत्तर भारत गंगा घाटी विंध्य क्षेत्र कान्तिपुर विंध्याचल जनपद मिर्ज़ापुर मे इनकी राजधानी थी
काशी मे गंगा तट पर दश अश्व मेघ यज्ञ किये जिसके कारण भार वहन करने से इनका नाम भारशिव पड़ा और काशी दशाश्वमेघ घाट
आज भी प्रसिध्द एव मौजूद है साधारण जनता ने अज्ञानता एव मूर्खता से इनको भर कहने लगी कालान्तर युग ये लोग राजभर क्षत्रिय नाम से प्रचलित हुये.

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