राजभर जाति के इतिहास से अन्य जाति के लोग परिचित हैं। वे जब तब इस जाति की गौरव गाथा का उल्लेख अपनी लेखनी के माध्यम से करते रहते हैं। विजातीय विद्वानों को बहुत आश्चर्य होता है कि भारत का निर्माण करने वाली इस अति प्राचीन जाति,
जिसने की भारत के कई क्षत्रिय वंशों को जन्म दिया है को अपने जातीय गौरव का आभास क्यों नहीं होता। इस सम्बंध में वह यह भी लिख देते हैं कि इस समाज में स्वाभिमान एवं एकता की नितान्त कमी है।
जब तक राजभर समाज पर सामाजिक मुखियाओं का नेतृत्व रहा तब तक राजभर समाज की गाड़ी ढर्रे पर चलती रही किन्तु ज्योंहि राजभर राजनेताओं का पदार्पण हुआ इस समाज और उसके संगठनों की गाड़ी पटरी से उतर गई-आपसी फूट अपनी जड़ जमाती गई।
जब तक राजभर समाज पर सामाजिक मुखियाओं का नेतृत्व रहा तब तक राजभर समाज की गाड़ी ढर्रे पर चलती रही किन्तु ज्योंहि राजभर राजनेताओं का पदार्पण हुआ इस समाज और उसके संगठनों की गाड़ी पटरी से उतर गई-आपसी फूट अपनी जड़ जमाती गई।
जहां अन्य जातियों के राजनेताओं ने राजभर समाज के इतिहास को चुरा कर अपने समाज के इतिहास की वृद्धि के लिए पुस्तकें लिखीं वहीं इन राजभर राजनेताओं ने अपनी जाति के इतिहास पर चार पन्ने भी लिखना तो दूर सभा-सम्मेलनों में इस दिशा में पहल किए जाने के लिए आह्वान भी नहीं किया। राजभर जाति के गौरवशाली इतिहास का अपहरण होता गया और इन राजभर राजनेताओं ने इस अपहरण का कभी विरोध नहीं किया अपितु वोट की खातिर राजभर जाति का इतिहास ,राजे-महाराजे, किले-खाई सबका अपहरण करवा दिया-ऐसा लगने लगा कि ये जैसे राजभर जाति के नहीं अपितु किसी अन्य जाति विशेष के इतिहास को समृद्ध करने को पैदा हुए हों।
दबे मुंह यह भी कहा गया कि कहीं कोई जाति विशेष का व्यक्ति राजभर इतिहास को मिटाने के उद्देश्य से अपने को राजभर लिखकर यह सब एक सोची समझी साजिश के तहत तो नहीं कर रहा ? राजभर समाज को गुमराह करने में इन राजनेताओं ने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखीं। फूट डालो राज करो का राजनैतिक फार्मूला को इनने अपना सिद्धांत बनाया । इन राजभर राजनेताओं ने राजभर समाज की सेवा के वजाय अपने राजनैतिक दल की सेवा को ही तरजीह दी। अपनी उन्नति की किन्तु राजभर समाज के स्वाभिमान को मटियामेट कर दिया-राजभर समाज भी उसी गर्त में समाने लगा।
इतिहास लेखन और उसका संरक्षण अब दूर की कौड़ी हो गया है। आज हम ऐसी स्थिति में हैं कि अन्य जाति के विद्वानों द्वारा राजभर जाति पर लिखे गए लेखों का भी संग्रह नहीं कर पा रहे। यह पुस्तक उसी दिशा में एक प्रयास है। पुस्तक दो भागों में विभाजित है। पहले भाग में मेरे द्वारा लिखे गए शोध लेख संग्रहीत हैं जो कि पहले भी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं और दूसरे भाग में अन्य जातियों के विद्वानों द्वारा लिखे गए शोध लेख हैं जो कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में या पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके हैं जिन्हें साभार इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया है।
यदि राजभर समाज ने अपने इतिहास संरक्षण की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो
राजभर इतिहास को नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता।
इतिहास लेखन और उसका संरक्षण अब दूर की कौड़ी हो गया है। आज हम ऐसी स्थिति में हैं कि अन्य जाति के विद्वानों द्वारा राजभर जाति पर लिखे गए लेखों का भी संग्रह नहीं कर पा रहे। यह पुस्तक उसी दिशा में एक प्रयास है। पुस्तक दो भागों में विभाजित है। पहले भाग में मेरे द्वारा लिखे गए शोध लेख संग्रहीत हैं जो कि पहले भी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं और दूसरे भाग में अन्य जातियों के विद्वानों द्वारा लिखे गए शोध लेख हैं जो कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में या पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके हैं जिन्हें साभार इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया है।
यदि राजभर समाज ने अपने इतिहास संरक्षण की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो
राजभर इतिहास को नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता।




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